सागर किनारे
हम सभी मैं एक उत्साह सा था ,पहला इस बात का की हम हॉस्टल से भागकर आये थे दूसरा इस जगह को देखने का उत्साह था । मेरा उत्साह समय के साथ बढ़ता जा रहा था । ऐसा लग रहा था जैसे ये सागर की लहरें चींख चींख कर कुछ कहना चाहतीं हों, जैसे मेरे सामने कोई विकराल रूप धारण किये आने वाला हो ।
मेरे दोस्त सागर की लहरों से मस्ती करने चले गए थे और मैं देख रहा था उन लहरों को, जिनका कोई छोर नहीं जिनका कोई अंत नहीं । देखते ही देखते मेरे विचारों की गहराई तूल पकड़ने लगी थी ।
एक तरफ तो मुझे सागर की विशाल लहरें नज़र आ रहीं थी और दूसरी ओर लंबी इमारतें । जिस तरीके से ये लहरें बढ़ती आ रहीं थीं लग रहा था मानो जैसे इनमें कोई रोष हो । जैसे इनका बस नहीं चल रहा नहीं तो रखले सबकुछ अपनी आगोश में ।
जैसे जैसे मैने इसके साथ कुछ वक्त गुज़ारा, कहीं न कहीं मुझे सागर की अंतहीन दहाड़ में प्रेम नज़र आने लगा था।
इस सागर की चींख मैं जैसे एक पुकार थी और कहीं न कहीं मुझे आकर्षित कर रही थी अपनी ओर। मेरा मन पहले जितना विचलित था अब उतना ही शांत होने लगा था। लग रहा था मानो इन लहरों से कोई रिश्ता बन गया हो ।
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